मंडला कुंभ जैसे नये कुंभ महोत्सव का आयोजन
Swatantra Vaartha Sat, 12 Feb 2011, IST
मंडला कुंभ जैसे नये कुंभ महोत्सव का आयोजन
नर्मदा तट स्थित मंडला तीर्थ पर यों हर वर्ष मेला लगता है, हजारों की संख्या में आदिवासी इस मेले में भाग लेते हैं और नर्मदा के पवित्र जल में स्नान करके पुूय प्राप्त करते हैं,लेकिन इस वर्ष यह मेला एक कुंभ में बदल गया है और देश के कोनेकोने से आदिवासियों का हुजूम यहां पहुंच रहा है। इस कुंभ में ब़डी संख्या में वे आदिवासी शामिल हो रहे हैं, जो मिशनरियों के प्रयास से ईसाई बन गये थे, लेकिन अब फिर अपनी पुरानी भारतीय परंपरा में वापस आना चाह रहे हैं। निश्चय ही इस वापसी की प्रेरणा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद तथा उनके द्वारा संचालित संगठनों द्वारा दी गई है और इस कुंभ का आयोजन भी संघ व भारतीय जनता पार्टी द्वारा किया गया है, किन्तु अपने पूर्व धार्मिक विश्वासों की ओर वापसी का आदिवासियों का विश्वास इसका एक अत्यंत उल्लेखनीय व दर्शनीय तत्व है।
तीन दिन के इस आयोजन में भाजपा, संघ तथा विश्व हिन्दू परिषद के नेताआें की ब़डी संख्या में उपस्थिति इस पूरे आयोजन को एक राजनीतिक रंग देती भी नजर आ रही थी, फिर भी देश के लिए इसे एक आवश्यक सांस्कृतिक आयोजन कहा जा सकता है। यह अब भली प्रकार प्रमाणित हो चुका है कि इस देश में जिन्हें आदिवासी कहा जाता है, वे किसी खास आदिम नस्ल के लोग नहीं हैं। नगरीय या नगरों से ज़ुडी ग्रामीण सभ्यता से दूर जंगलोंपर्वतों में रहने वाले लोगों को अंग्रेज विद्वानों ने हिंदू परंपरा या जाति से अलग एक अलग तरह की मानव जाति घोषित कर दी थी। अफसोस की बात यह है कि उन विद्वानों के अनुयायी भारतीय विद्वान भी उन्हें अलग मानव जाति ही मानते हैं। यदि ऐसा न होता तो इस मंडला कुंभ के अवसर पर केन्द्र सरकार के समक्ष यह शिकायत न पेश की जाती कि संघ के लोग यहां मध्य प्रदेश में आदिवासियों को हिन्दू बनाने का प्रयास कर रहे हैं,जो राज्य के धर्मांतरण कानून का उल्लंघन है। आदिवासियों या वनवासियों को ईसाई बनाना कोई अपराध नहीं है, किन्तु यदि वे ईसाइयों का बंधनग्रस्त धर्म छ़ोडकर फिर अपनी मुक्त जीवन पद्घति की ओर वापस लौटना चाहते हैं तो यह अपराध है।
यह एक खुला तथ्य है कि धर्मांतरण आज विश्वास परिवर्तन की बात नहीं, बल्कि एक राजनीतिक आस्था परिवर्तन का रूप ले चुका है। ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित धर्मांतरण अभियान के पीछेपीछे ही यूरोपीय ईसाई साम्राज्यवाद भारत आया था। मिशनरियों ने पर्वतों एवं वन्य क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को सबसे पहले अपना निशाना बनाया और उनका धर्मांतरण शुरू किया। इसका परिणाम यह हुआ कि धर्मांतरित समुदाय भारतीय धर्म संस्कृति की पारंपरिक शक्ति को ध्वस्त करने वाला सबसे ब़डा हथियार बन गया,जिसका इस्तेमाल करके यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने भारत को निगलने का प्रयास किया। अरब के इस्लामी साम्राज्यवादियों ने भी ईसाइयों की इसी परंपरा का अनुकरण करके अपना अभियान शुरू किया।
भारतीय परंपरा में व्याप्त अज्ञानता, अशिक्षा तथा तज्जनित म़ूढता ने विदेशियों विशेषकर ईसाई मिशनरियों की भरपूर मदद की। अब यदि राष्ट्रीय अस्मिता का पुनर्जागरण हो रहा है और लोग आछूत, जात पांत को त़ोडकर फिर सांस्कृतिक व जातीय समन्वय की बात कर रहे हैं, तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए न कि उसका विरोध,लेकिन संकीर्ण स्वार्थ वाली राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के पास ऐसी उदार दृष्टि कहां ! यह प्रसन्नता की बात है कि मंडला कुंभ में छुआछूत मिटाने तथा सामाजिक विकास में पिछ़ड गये लोगों को भी मुख्यधारा में लाने के संकल्पों को दोहराया गया। निश्चय ही ऐसे कुंभ महोत्सवों का आयोजन देश के अन्य पिछ़डे तथा आदिवासी बहुल इलाकों में किया जाना चाहिए। उत्तरपूर्व के राज्यों में शायद इनकी और अधिक आवश्यकता है, क्योंकि मिशनरियों ने उस क्षेत्र का पूरा वातावरण ही बदल कर रख दिया है।
क्या मिस्र अब सेना के नियंत्रण में है !
मिस्र के राष्ट्रपति होस्नी मुबारक ने टीवी पर अपने संबोधन में साफ कह दिया है कि सितंबर में होने जा रहे अगले चुनावों के पहले वह राष्ट्रपति पद नहीं छ़ोडेंगे। इसके पहले ऐसी खबर आयी थी कि उन्होंने अपना औपचारिक पद तो नहीं छ़ोडा है, लेकिन राष्ट्रपति पद के सारे अधिकार सेना को या अपने नवनियुक्त उपराष्ट्रपति उमर सुलेमान को सौंप दिये है। सुलेमान भी सेना के ही अधिकारी हैं, जो उपराष्ट्रपति बनाये जाने के पूर्व उसकी गुप्तचर शाखा के प्रमुख थे। मुबारक की घोषणा से काहिरा के तहरीर चौक पर जमे आंदोलनकारी काफी खफा हैं। उन्हें आशा थी कि टीवी पर आकर वह अपने पद त्याग की घोषणा करेंगे, लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ।
वास्तव में मुबारक ने सत्ता छ़ोडना तो स्वीकार कर लिया है, लेकिन तीन दशकों तक सत्ता में रह चुके मुबारक की अंतिम इच्छा है कि वह आंदोलनों के दबाव में अपमानित होकर नहीं,बल्कि सम्मानपूर्वक सत्ता से विदाई लें। इसलिए वह सारे अधिकार छ़ोडने के बाद भी चाहते हैं कि देश की निर्वाचित नई सरकार को सत्ता सौंपकर ही अपने पद से औपचारिक रूप से हटें। सऊदी अरब के शाह ने भी अमेरिका से कहा है कि वह मुबारक को अपमानित होकर पद छ़ोडने के लिए बाध्य न करें। उन्होंने सख्त शब्दो में अमेरिका से कहा है कि यदि वह मुबारक के रहते मिस्र को दी जाने वाली अपनी ड़ेढ अरब डॉलर वार्षिक सहायता बंद करना चाहता है,तो सऊदी अरब इतनी सहायता अपनी तरफ से मिस्र को देने के लिए तैयार है।
मुबारक सऊदी अरब शाह के घनिष्ठ मित्र हैं, इसलिए शाह अपने मित्र की प्रतिष्ठा के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार हैं। अभी स्थिति पूरी तरह स्पष्ट नहीं है, किन्तु ऐसा लगता है कि सेना ने पूरी सत्ता शक्ति अपने हाथ में लेकर मुबारक को मात्र प्रतीक के रूप में राष्ट्राध्यक्ष पद पर बनाये रखने पर सहमत हो गई है। मिस्री सेना के एक कमांडर हसन अलरोवेनी ने काहिरा के तहरीर चौक पर पहुंचकर जब यह घोषणा की कि सेना ने राष्ट्रपति के सारे अधिकार ले लिये हैं और अब देश में वही होगा जो देश की जनता चाहती है,तो लोगों ने उन्हें अपने कंधे पर उठा लिया। मुख्य सेनाध्यक्ष सामी अनान भी बाद में वहां पहुंचे और कहा कि जनता की सारी मांगे पूरी की जाएंगी, तो उनका हर्ष ध्वनि से स्वागत किया गया।
यद्यपि इसके पहले यह भी खबर थी कि मुबारक अपने नव नियुक्त उपराष्ट्रपति उमर सुलेमान को अपने सारे अधिकार यानी पूरी सत्ता सौंपने वाले हैं,किन्तु मिस्री सशस्त्र सेना की सर्वोच्च परिषद की घोषणा के बाद स्थिति भिन्न रूप लेती नजर आ रही है। अंतरिम सत्ता के स्वरूप के बारे में अभी कोई घोषणा नहीं की गई है। अटकलें लगाई जा रही है कि मुबारक स्वयं ही किसी भी समय टीवी पर राष्ट्र से मुखातिब होकर नई व्यवस्था के बारे में घोषणा कर सकते हैं। ऐसा लगता है कि सेना को बीच में लाने का काम अमेरिकी सलाह से किया गया है, क्योंकि अमेरिका की कोशिश है कि अंतरिम व्यवस्था में ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ जैसे संगठन का वर्चस्व कायम न होने पाए।
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