असीमानंद जैसे लोगों से संघ का किनारा !
Swatantra Vaartha Tue, 11 Jan 2011, IST
असीमानंद जैसे लोगों से संघ का किनारा !
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने अपने एक वक्तव्य में यह साफ कर दिया है कि तथाकथित हिन्दू आतंकवाद का उनके संगठन से कोई संबंध नहीं है। उनका कहना है कि उन्होंने बहुत पहले यह कह दिया है कि संघ में अतिवादी विचार वालों के लिए कोई स्थान नहीं है। उन्होंने कांग्रेस पार्टी पर प्रहार करते हुए कहा कि चारों तरफ से भ्रष्टाचारों के आरोपों से घिरी कांग्रेस लोगों का ध्यान बंटाने के लिए हिन्दू आतंकवाद का शोर मचा रही है और उसे संघ के साथ ज़ोडने का प्रयास कर रही है। यह रोचक है कि एक तरफ कांग्रेस के नेता कह रहे हैं कि भाजपा के लोग आतंकवादी घटनाआें के साथ संघ परिवार की संलिप्तता से लोगों का ध्यान हटाने के लिए भ्रष्टाचार के मिथ्या आरोपों को अनावश्यक तूल दे रहे हैं, तो संघ के प्रमुख कांग्रेस के नेताआें पर आरोप लगा रहे हैं कि वे भ्रष्टाचार के आरोपों से ध्यान हटाने के लिए आतंकवाद के गलत आरोपों का सहारा ले रहे हैं। भागवत तथा संघ परिवार के नेताआें का यह भी आरोप है कि सबरीमलय वनवासी आश्रम के संचालक असीमानंद को गिरफ्तार करके उनसे जबर्दस्ती इस तरह का बयान दिलवाया जा रहा है और उसे ब़ढाच़ढाकर प्रसारित कराया जा रहा है कि समझौता एक्सप्रेस व मालेगांव तथा हैदराबाद के मक्का मस्जिद विस्फोटों में उनका तथा संघ से ज़ुडे लोगों का हाथ था।
इन आरोपोंप्रत्यारोपों में कितना क्या सच है, यह बहुत कुछ इस देश के प्रबुद्ध लोगों को मालूम है। लेकिन यहां अहम सवाल यह है कि क्या असीमानंद वास्तव में हिन्दू आतंकवाद के प्रतीक हैं और संघ से उनका ज़ुडाव क्या संघ को भी आतंकवादी बना देता है ? इसमें दो राय नहीं कि हिन्दू महासभा और उसके बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का गठन इस देश में मुस्लिम लीग के गठन के बाद इस्लामी कट्टरपन और उसकी हिंसा से बचाव के लिए हिन्दुआें को संगठित करने के लिए हुआ, लेकिन इन संगठनों ने सैद्धांतिक तौर पर कभी भी हिंसा या प्रतिहिंसा को अपना हथियार नहीं बनाया, इनका चरित्र प्रतिरक्षात्मक ही बना रहा। फिर भी इनमें यदि हिंसा का जवाब हिंसा से देने का विचार रखने वाले कुछ लोग आ गये, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं, यह अस्वाभाविक भी नहीं। देश के स्वतंत्र होने के बाद ऐसी चुनौतियां क्रमश: कम होती गयी थीं, लेकिन इधर के एक दो दशकों में अंतर्राष्ट्रीय जिहादी आतंकवाद ने फिर देश के सामने एक हिंसक चुनौती ला ख़डी की, जिसका मुकाबला करने में इस देश की राजसत्ता भी नाकाम सिद्ध हो रही है। ऐसे में इन संगठनों में शामिल कुछ लोगों ने यदि हिंसा का जवाब हिंसा से देने की ठान ली हो, तो इसे भी अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। लेकिन इस देश में अफसोस की बात यह है कि जो ऐसा करते हैं या सोचते हैं, वे सार्वजनिक तौर पर उसे स्वीकार करने का साहस नहीं रखते।
आश्चर्य है कि मोहन भागवत में भी यह कहने का साहस नहीं है कि यदि हिन्दुआें के खिलाफ आतंकवादी हमले ब़ढेंगे, तो उसकी प्रतिक्रिया में हिन्दुआें के बीच भी उग्रवाद पैदा हो सकता है। असीमानंद जैसे लोग ऐसी प्रतिक्रिया की ही देन हैं। वे सिद्धांतत: हिंसा के अनुयायी नहीं हैं, लेकिन प्रतिक्रिया के क्षोभ में हिंसा का अस्त्र अपना लेना किसी साधु संत के लिए भी अस्वाभाविक नहीं। सिख तो शांतिप्रिय भक्तों का संगठन था, लेकिन धर्म व जाति रक्षा के लिए वह शस्त्रबद्ध संगठन बन गया। उत्तर भारत के तमाम तपस्वी साधुआें ने अपने चिमटे को ही हथियार बना लिया था और तपस्या छ़ोडकर अपने शिष्यों को ल़डनेभ़िडने का प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया था। अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिरा दी गयी, तमाम लोगों ने हर्ष मनाया, लेकिन कोई यह कहने के लिए सामने नहीं आया कि हमने इसे गिराया या हमने इसे क्यों गिराया।
असीमानंद आदि पर जो आरोप लग रहे हैं या जिस कृत्य को वे स्वयं स्वीकार कर रहे हैं, वह निश्चय ही गलत और निंदनीय है, यदि जिहादी आतंकवाद के विरुद्ध उनके मन में वास्तविक गुस्सा है, तो उन्हें खुलकर सामने आना चाहिए और सीधी ल़डाई ल़डनी चाहिए। चोरी छिपे बम रखकर तो वे भी वही कायराना हरकत कर रहे हैं, जो जिहादी आतंकवादी करते आ रहे हैं। संघ को भी इन मामलाेें में सत्य और साहस का परिचय देना चाहिए। प्रतिरक्षात्मक बयानों से उसकी रक्षा नहीं हो सकेगी।
पाक में कट्टरपंथी व उदारपंथी में कोई खास भेद नहीं
पाकिस्तान के शहर कराची में कठोर ईशनिंदा कानून को बनाए रखने के लिए इस रविवार को एक विशाल रैली हुई, जिसमें करीब ५० हजार से अधिक लोग शामिल हुए। ये सब नारे लगा रहे थे और हाथ में बैनर व तख्तियां लिए हुए थे, जिन पर लिखा था ‘मुमताज कादरी हत्यारा नहीं हीरो है’, ‘हम उसके साहस को सलाम करते हैं’, आदि आदि। इस रैली में पाकिस्तान के सभी प्रमुख धार्मिक पार्टियों व संगठनों ने भाग लिया था, जिनमें उदारपंथी और कट्टरपंथी दोनों शामिल थे। दोनों एक स्वर में ईशनिंदा कानून को नरम बनाने के खिलाफ आवाज उठा रहे थे। इस कानून में संशोधन की मांग करने वाले पीपीपी के नेता व पंजाब प्रांत के राज्यपाल सलमान तासीर की हत्या के कुछ दिन बाद ही हुई इस तरह की रैली से पाकिस्तान सरकार घब़डा गयी है। प्रधानमंत्री यूसुफ रज़ा गिलानी ने फौरन बयान जारी करके स्पष्ट किया है कि सरकार का ईशनिंदा कानून में संशोधन का कोई इरादा नहीं है।
इसके साथ ही यह खबरें भी आ रही हैं कि पाकिस्तानी हिन्दुआें में धर्मपरिवर्तन कि क्रिया तेज हो गयी है। पाकिस्तान में सुरक्षापूर्वक जीवन जीने के लिए आवश्यक हो गया है कि लोग इस्लाम कबूल कर लें। अभी जिस ईसाई महिला आशिया बीबी को ईशनिंदा के आरोप में मौत की सजा दी गयी है, उसके परिवार पर भी धर्म बदल लेने का भारी दबाव है। स्वयं आशिया बीबी की हत्या के लिए भारी इनाम दिये जाने की घोषणा की गयी है। आशिया बीबी का परिवार अपने गांव में अकेला ईसाई परिवार है, इसलिए उस पर और अधिक खतरा है।
इमामों के संगठन के एक नेता करीम मोहम्मद सलीम ने कहा है कि यदि ईशनिंदा (ब्लैसफीम लॉ) कानून के अंतर्गत किसी को पहले सजा दी जाती है और फिर यदि उसे माफ कर दिया जाता है, तो हम भी कानून हाथ में लेंगे, जो मन चाहे करेंगे। किसी कानून का अर्थ क्या यदि उसके तहत हुए फैसले को कोई सत्ता प्रमुख किसी दबाव में आकर बदल दे। अब इस तरह की देशव्यापी प्रतिक्रिया को देखते हुए आशिया बीबी के लिए माफी मिलना तो बहुत मुश्किल हो गया है। राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी के निकटवर्ती सूत्रों के अनुसार पहले वह आशिया को माफी दे देने के पक्ष में थे, लेकिन अब वह शायद ही ऐसा साहस कर सकें। पाकिस्तान सरकार के धार्मिक मामलों के मंत्री ने भी यह स्पष्ट कर दिया है कि सरकार ईशनिंदा कानून के संदर्भ में किसी के साथ किसी तरह की नरमी बरतने के लिए तैयार नहीं है। अब इस स्थिति में सहज ही कल्पना की जा सकती है कि पाकिस्तान इस २१वीं शताब्दी के दूसरे दशक में किस दिशा में ब़ढ रहा है। आश्चर्य है कि अब वहां के नरमपंथी अपनी पहचान खो रहे हैं और कट्टरपंथियों के स्वर में अपना स्वर मिलाने लगे हैं।
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