23 February, 2011

AP Samachar - 23 February 2011

Does India have a Prime Minister?
February 23, 2011   7:23:02 PM

Swapan Dasgupta

There is a British parliamentary tradition that India should seriously consider adopting: The Prime Minister’s Question Time. Each Wednesday the House of Commons is in session, the PM has to answer questions posed by the Leader of the Opposition and backbench MPs for 30 minutes. These 30 minutes are potentially harrowing for any Prime Minister, including glib performers like Tony Blair and David Cameron. The reason is that there is no advance intimation of the issues likely to be raised, and these could range from a sharply-worded poser on some aspect of foreign policy to an indignant demand to know why a local hospital had been closed. Like the Boy Scouts, the Prime Minister has to ‘be prepared’ for every eventuality.

The purpose of Prime Minister’s Questions is not merely to showcase a verbal duel between the leaders of two political parties — the best debater doesn’t always prevail at the general election. The idea is to institutionalise the accountability of the Prime Minister as the head of the entire Government. Individual Ministers carry their departmental responsibilities but the buck stops with the Prime Minister. He is accountable for the entire Government and he has to know its every arm.

It is a commentary on the state of Indian democracy that Manmohan Singh’s interaction with the editors of TV channels last Wednesday was accompanied by a degree of satisfaction that he had finally broken his silence. That the Prime Minister had actually chosen the path of reticence in the face of a political crisis of enormous magnitude was itself intriguing. Surely, he owed the people of India and its Parliament some explanation. That he chose to route his version of current developments through a regulated televised interaction — after mildly berating the media for sapping the nation’s self-confidence with its focus on the negative — is even more revealing. Since Singh is naturally media-shy and one-liners don’t come to him naturally, the choice of forum suggests an even greater discomfiture with the chaotic and insolent ways of Parliament.

The choice of occasion and platform is, however, an incidental footnote. What is far more significant is the manner in which Singh has subtly redefined the role of a Prime Minister in the age of coalitions. That he is not the grand, imperial Prime Minister in the style of Jawaharlal Nehru, Indira Gandhi, Rajiv Gandhi and, at a pinch, even Atal Bihari Vajpayee was well known. The circumstances of his appointment to the top job were different and unique. At best, and not least on account of his seniority and intellectual erudition, he was expected to be primus inter pares (first among equals). The tragedy of Singh is that he has recast the position of the Prime Minister as a departmental head: The man responsible for the Ministry called Prime Minister’s Office.

Had constitutional improvisation been allowed, Singh should have been re-designated as Chairman of the Cabinet. The prefix Prime Minister is ill-suited to him.

Unfortunately, this is a reality that many in this country have not yet fully recognised. Many of the questions thrown at him by the editors were premised on the belief that Singh occupies the hallowed post of Prime Minister as the country has known it. Why, he was asked, did he reappoint A Raja to the Cabinet in 2009? Why did he not take proactive steps to stop the Commonwealth Games loot fest? Why was he so tardy in ensuring the cancellation of a sweetheart deal between ISRO and Devas?

These were questions based on flawed assumptions. They were about as flawed as the automatic equation between, say, the Mughal Emperor Jehangir and his descendant Emperor Shah Alam. On paper they were both Mughal emperors with the same grand titles. But, did Emperor carry the same meaning in 1765, when the East India Company was allowed to exercise its sovereignty over Bengal in the Emperor’s name, as it did in 1603 when Sir Thomas Roe pleaded for permission to trade?

To be fair, Singh didn’t try to pretend what he was not. He confessed that “some compromises had to be made in managing coalition politics” and that his choice of Raja in 2009 was dictated by the wishes of M Karunanidhi. But he didn’t object because “I had no reason, frankly speaking, to feel that anything seriously wrong had been done.” On the 2G spectrum sale, he admitted to his personal preference for the auction route. But when Raja cited the endorsement of the TRAI and the Telecom Commission for the first-come-first-serve route, Singh said, “I did not feel I was in a position to insist (on) auctions.”

The conclusion is obvious: As the head of one department, Singh was loath to tell another department how to go about its business.

Likewise, wouldn’t it have been presumptuous for the PMO to tell ISRO and the Department of Space how to go about its S-band transactions? Yes, there was a lot of foot-dragging between the decision to scrap the contract in July 2010 and perfecting the paperwork. But the PMO wasn’t involved; it was all the doing of the space babus.

Only, in this case the Minister for the Department of Space was the same as the Minister in charge of the PMO: Manmohan Singh.

Singh conceded to “irregularities” in the Government and an “ethical deficit”. But he wasn’t responsible.

Maybe the Prime Minister was. But, does India have a Prime Minister?
क्या देश से भी ब़डा है वोट बैंक
बीते गुरुवार को २६/११ को मुंबई में हुए आतंकी हमले में शहीद हुए मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के चाचा के मोहनन ने संसद भवन के नजदीक विजय चौक के पास आत्मदाह कर लिया। दिल दहला देने वाली इस घटना ने हर देशभक्त नागरिक को झकझोर कर रख दिया। उनके पास मिली डायरी में उन्होंने अपनी प़ीडा का इज़हार किया है। मलयाली भाषा में उन्होंने लिखा है कि ‘जिन आतंकवादियों ने उनके भतीजे को गोलियों से भून डाला, उनको फांसी देने में सरकार ढिलाई बरत रही है। इस मुद्दे पर राजनीति की जा रही है, इससे उनका परिवार दुःखी है। यह घटना सरकार की आंखेंंंं खोलने के लिए काफी है। क्योंकि अन्य कई आतंकी घटनाआें में फांसी की सजा काट रहे आतंकियों के खिलाफ फैसला लेने में सरकार की अनिर्णय की स्थिति और मामला जानबूझकर लटकाये जाने से शहीदों के परिजन बेहद आहत हैं। इतना ही नहीं शहीद परिवारों के लिए की गई घोषणाआें तक को पूरा नहीं किया जा सकता है। इस हीलाहवाली के खिलाफ पी़डत परिवारों ने समयसमय पर गुस्से का इज़हार भी किया है पर वह नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गई है। इसी उपेक्षा और हताशा की परिणति है मोहनन के आत्मदाह की घटना। चाहे कारगिल का युद्ध रहा हो अथवा देश के विभिन्न हिस्सों में हुई आतंकी घटनाएं, हमारे जवानों ने जान की बाजी लगाकर उनके मंसूबों को त़ोडा है। क्या विडम्बना है कि हमारे नेता शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए आतंकियों के खिलाफ क़डी कार्रवाई की घोषणा करते हैं और उनके परिवारों को सहयोग का आश्वासन देते हैं, लेकिन अमल करने के नाम पर सरकारें सुस्त होती है। समयसमय पर पी़डत परिवार इस ओर सरकार का ध्यान आकृष्ट कराते हैं, जो अखबारों की सुर्खियां बनती हैं किन्तु सरकारी स्तर पर उनकी समस्याएं दूर करने की दिशा में प्रयास नहीं होते।
आतंकी घटनाआें में फांसी की सजा पाये आतंकियों को फांसी देने का सवाल मोहनन की तरह अनेक शहीदों के परिजन उठाते रहे हैं। संसद तक में इसकी गूंज उठ चुर्की है। वैसे जिन आतंकियों को फांसी की सजा मिल चुकी है, उन पर कार्रवाई का मामला गृह मंत्रालय और राष्ट्रपति भवन के बीच शटलकॉक बना हुआ है। ऐसे में शहीद परिवारों का आक्रोश स्वाभाविक है। मोहनन के इस कृत्य को मैं व्यक्तिगत रूप से कायरतापूर्ण कदम मानता हूं। उन्हें अपना क्षोभ जताने के लिए आत्मदाह की जगह पूरी दुनिया में सबसे लोकप्रिय गांधीवादी तरीका अपनाना चाहिए था। लेकिन जो मूल सवाल है, उस पर पक्षविपक्ष किसी की भी प्रतिक्रिया नहीं आ रही है, जो दुःखद है। कल से संसद का बजट सत्र शुरू हो गया है। देखते हैं, सवाल उठता है या हंगामे और सरकारी कामकाज के मुद्दों के बीच दब कर रह जाता है। शहीदों के परिजन तल्ख लहजे में कहते हैं कि २४ दिसंबर, १९९९ में आईसी ८१४ विमान का आतंकियों ने अपहरण कर लिया था। उसमें सवार यात्रियों को बचाने के लिए तत्कालीन सरकार ने जेल में बंद तीन खूंखार आतंकवादियों मुश्ताक अहमद जरगर, अहमद उमर सईद शेख और मौलाना मसूद अजहर को कंधार ले जाकर छ़ोडा था, जिसमें हमारे प़डोसी देश की अहम भूमिका थी।
सवाल है कि विभिन्न आतंकी हमलों के लिए जिम्मेदार फांसी सजायाफ्ता आतंकियों को फांसी देने में सरकार हीलाहवाली क्यों कर रही है? इससे आतंकियों का मनोबल टूटने की जगह ब़ढ रहा है। खुफिया एजेंसियां समयसमय पर देश के विभिन्न शहरों में आतंकी खतरे से सचेत कर रही हैं और सरकार आतंकवाद के खिलाफ निर्णायक ल़डाई के लिए प्रतिबद्ध भी दिखती है, पर जेल में बंद इन आतंकियों के खिलाफ क़डी कार्रवाई न कर पाने के कारण वह देश और दुनिया के उन देशों के बीच क़डा संदेश नहीं दे पा रही है, जो आतंकवाद के सफाये की जंग में शामिल है। उल्टे इस पर राजनीति हो रही है। इसके विपरीत पी़डत परिवारों को सुविधाएं मुहैया कराने में सरकार की उदासीनता किसी से छुपी नहीं है।
मैं पाठकों को याद दिलाना चाहूंगा कि संसद पर हमले में शहीद जवानों को श्रद्धांजलि देने के लिए हर साल शोकसभा होती है, जिसमें प्रधानमंत्री से लेकर ब़डे नेता शामिल होते हैं किन्तु सरकार की गैरजिम्मेदाराना नीति के चलते १३ दिसंबर, २००८ को अपने गुस्से का इज़हार करने के लिए इसमें पी़डत परिवार के लोग शामिल ही नहीं हुए थे। उस समय खूब शोर मचा था किन्तु सरकार ने उससे भी कोई सबक नहीं लिया। इतना ही नहीं, कारगिल में शहीद जवानों के परिवारों को सरकार ने पेट्रोल पम्प और गैस एजेंसी देने की घोषणा की थी। किन्तु ३७ परिवारों को ये सुविधाएं अब तक नहीं मिल सकी है। ये केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच खींचतान के चलते इन सुविधाआें से वंचित हैं।
इतना ही नहीं, मुंबई हमले के एक साल बाद संसद में शहीदों को श्रद्धांजलि देते समय भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने आरोप लगाया था कि अब तक केवल एक चाेैथाई पी़डतों को ही मदद दी गई है। तब सरकार के पास कोई जवाब नहीं था। राज्यसभा में जब आरोप लगाया गया कि मदद के लिए दी गयी धनराशि के सरकारी चेक बाउंस हो रहे हैं, तो संसद में सन्नाटा छा गया था। उस दौरान गृहमंत्री ने नौकरशाही की विफलता का रोना रोया था। दुःखद तो यह है कि मुंबई हमले में मारे गये इकहत्तर लोगों के परिवारों के बैंक डिटेल राज्य सरकार केन्द्र को नहीं भेज सकी थी, जिनके लिए सरकारी मदद की घोषणा की गयी थी। हमारे नेताआें का चाल चरित्र और चेहरा ब़डा अनोखा है। अपने इस कथन के समर्थन में मैं कुछ उदाहरण रख रहा हूं, जोनीरत्रीर विवेचन के लिए काफी हैं।
मुंबई हमले के दौरान बिहार निवासी मोहम्मद तौफीक शेख उर्फछोटू चाय वाले ने छत्रपति शिवाजी स्टेशन पर जान पर खेलकर दर्जनों यात्रियों की जिंदगियां बचायी थीं। घायलों को कंधे पर बिठाकर अस्पताल पहुंचाया था। उस समय तत्कालीन रेलमंत्री ने छोटू को रेलवे में नौकरी देने का वायदा किया था किन्तु इस घटना के दो साल बाद भी उसे नौकरी नहीं मिल सकी है। इतना ही नहीं जुलाई, २००६ में आतंकियों ने मुंबई की लोकल ट्रेनों में धमाके किये, जिसमें २०० सेें अधिक यात्री मारे गये थे। उसमें कल्याणी के पति भी मारे गये थे। वे शिपिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया में काम करते थे। दो छोटी बच्चियों के साथ आज कल्याणी आर्थिक तंगी झेल रही है किन्तु उन्हें पति के स्थान पर अब तक नौकरी नहीं मिल सकी है। इसी तरह संसद पर हुए हमले में शहीद एक सुरक्षाकर्मी की पत्नी जयंती पेट भरने के जुग़ाड में दरदर भटक रही है वहीं वाच एंड वार्ड विभाग के कर्मी मातवर सिंह के परिवार की दिल्ली सरकार द्वारा घोषित सहायता सात साल बाद भी नहीं मिल सकी है। इतना ही नहीं संसद पर हमले में मारे गये सुरक्षाकर्मियों के परिवार के लोगों का भी आरोप है कि हमले के सूत्रधार अफजल को फांसी पर लटकाए जाने के मामले में राजनीति हो रही है।
देश की सीमाआें की रक्षा हो अथवा आतंकी हमला व कोई त्रासदी, हमारे जवान अपने कर्तव्य का पालन करते हुए हंसतेेहंसते जान की बाजी लगा देते हैं। उन्हें अपने फर्ज के आगे परिवार तक की चिंता नहीं होती। किन्तु शहादत के बाद सरकार का उपेक्षापूर्ण रवैया शेष जवानों का मनोबल कमजोर करता है। यही कारण है कि सेना में भर्ती के प्रति लोगों का आकर्षण घट रहा है। एक रिकॉर्ड के अनुसार सेना में अफसरों के १११५३ पद रिक्त हैं तो लगभग १५०० अफसरों ने वीआरएस मांगा है। एयरफोर्स के २५० पायलट नौकरी छ़ोडने का आवेदन कर चुके हैं, जिसको लेकर हंगामा मच चुका है। इसलिए सरकार को सेना और सुरक्षाबलों की सेवाआें को और आकर्षक बनाने की दिशा में पहल करनी चाहिए। साथ ही कर्तव्य निर्वहन के दौरान शहीद होने वाले परिवारों को दी जाने वाली सुविधाएं यथाशीघ्र मुहैया करानी चाहिए। केन्द्र को ऐसा कानूनी प्रावधान करना चाहिए ताकि राज्य सरकारें उसके अनुपालन के लिए बाध्य हो। तभी पी़डत परिवारों के टूटते विश्वास पर विराम लग सकेगा। सरकार को इस दिशा में सोचने की जरूरत है। आतंकी वारदातों से लहूलुहान भारत पर इसीलिए नरम राष्ट्र होने के आरोप लग रहे हैं। आतंकियों के हाथों बारबार चोट खाने के बावजूद उनके सफाये के प्रति हम गंभीर नहीं दिखते। सरकार पर आरोप लग रहे हैं कि आतंक के खिलाफ ल़डाई में उसे वोट बैंक दिख रहा है। इसीलिए जेलों में बंद आतंकवादियों के खिलाफ क़डी कार्रवाई करने में वह हीलाहवाली कर रही है, जिसका खामियाजा अन्ततः निर्दाेेष जनता और देश को भुगतना प़ड रहा है। 

Swatantra Vaartha  Tue, 22 Feb 2011, IST





बाबा रामदेव से आतंकित लोग
अरुणाचल प्रदेश की यात्रा पर गये योग गुरु बाबा रामदेव को इंडिया के भीतर ही पहली बार इंडियन होने की गाली मिली। क्या मतलब है इसका। बाबा रामदेव को ‘ब्लडी इंडियन डॉग’ कहने वाला कांग्रेसी सांसद निनांग एरिंग क्या स्वयं इंडियन नहीं है ? शायद नहीं ! निनांग एरिंग धर्मांतरित ईसाई है। वह ‘पोलिटिकली’ इंडियन जरूर है, ‘कल्चरली’ नहीं। भगवा वस्त्र धारण करने व योग की शिक्षा देने वाले रामदेव ‘कल्चरली’ इंडियन है, जो ‘पोलिटिकल’ इंडिया में दखल देना चाहते हैं। एरिंग के लिए ‘इंडिया’ एक जागीर से अधिक कुछ नहीं है। उन्हें इसके इतिहास व संस्कृति से कोई लेनादेना नहीं है। वह ‘जेन्टिलमैन’ इंडियन हैं और भगवाधारी बाबा ‘ब्लडी’ इंडियन। किसी ‘ब्लडी’ इंडियन को क्या हक है कि वह ‘जेन्टिलमैन’ इंडियन की पार्टी के नेताआे पर कोई आक्षेप करे, भ्रष्टाचार के आरोप लगाये और उसकी सत्ता को बदलने का आह्‌वान करे।
यद्यपि एरिंग बाद में ढीले प़ड गये। उन्हें डर लगा कि ‘ब्लडी इंडियन’ कहने पर कहीं उनकी पार्टी न उनसे नाराज हो जाए। उन्हें उस भगवाधारी की तो कोई चिंता नहीं हुई, लेकिन अपने पार्टी नेताआें के गुस्से की चिंता हो गयी। ‘ब्लडी’ इंडियन की बात उन्हें भी ‘हर्ट’ कर सकती है। इसलिए उन्होंने नरमी अख्तियार करना ही ठीक समझा, लेकिन बाबा पर हमला करने की जिम्मेदारी अब पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह ने ले ली है। उन्होंने बाबा जी से पूछा है कि पहले वह अपनी आमदनी का ब्यौरा देश को दें। वैसे दिग्विजय सिंह को यह पूछने या कहने की जरूरत नहीं है, उन्हें यदि बाबा जी की नाजायज संपत्ति या नाजायज आमदनी का कोई संदेह है, तो उनकी सरकार के पास ऐसी तमाम कानूनी मशीनरी है, जो सीधे उनसे पूछताछ कर सकती है, उनके एकाउंट देख सकती है। देश के भीतर तो किसी का एकाउंट गोपनीय है नहीं और बाबा विदेश में अपना पैसा रख नहीं सकते, क्योंकि वह स्वयं विदेश में जमा भारतीयों के पैसे के खिलाफ अभियान छ़ेडे हुए हैं।
लेकिन बाबा जी को तथा उनके अनुयायियों को खुद भी कुछ सावधानियां बरतनी चाहिए। वह यदि आधुनिक लोकतांत्रिक राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था में दखल देने की अपनी योजना को सफल बनाना चाहते हैं, तो उन्हें भी इसे एक वैज्ञानिक आधार प्रदान करना होगा। यदि इसमें उन्होंने पूजापाठ और यज्ञादि के कर्मकांड को शामिल किया, तो उनकी राजनीति भी उसी में स्वाहा हो जाएगी। बाबा जी कहते हैं योगाभ्यास से चित्त शांत होता है, क्रोधादि पर नियंत्रण कायम होता है, किंतु एरिंग की एक मामूली सी टिप्पणी से उनका वषा] का अभ्यास वाला चित्त भी क्षुब्ध हो गया और ब़डी मुश्किल से उन्हें अपने क्रोध पर नियंत्रण करना प़डा। उनके शिष्यगण अभी भी क्रुद्ध हैं। उनके कुछ अनुयायी एरिंग की बुद्धिशुद्धि के लिए यज्ञहवन कर रहे हैं। इस यज्ञ हवन से आधुनिक लोकतंत्र चलने वाला नहीं है। यदि लोगों की बुद्धि शुद्धि इतनी आसान है, तो बाबा रामदेव को दिल्ली में एक ब़डा यज्ञ करके सभी ब़डे नेताआें की एक साथ बुद्धि शुद्धि कर देनी चाहिए। फिर तो उन्हें आगे का कोई संघर्ष ही नहीं करना प़डेगा। इसलिए बाबा जी को चाहिए कि वह पहले अपने शिष्यों व अनुयायियों को वैज्ञानिक सोच वाला, उदार व सहिष्णु बनाएं।
वे उत्तेजित होकर अपना सहज संतुलन खोते रहे, तो वे अपनी यात्रा में बहुत आगे तक नहीं जा सकेंगे। बाबा रामदेव के अभियान से भ्रष्ट राजनेताआें में एक तरह का आतंक अवश्य पैदा हुआ है। भविष्य में ऐसे लोगों से उनका टकराव होना स्वाभाविक है। उस टकराव में स्वयं उनका व उनके अनुयायियों का संयम और धैर्य ही सर्वाधिक काम आएगा।

Swatantra Vaartha
The Pioneer
The New Indian Express

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